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Vridhashram

जज्बात मन के
जज्बात मन के
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आँगन के खटिये पर अब ना बुड्ढी काकी सोती है
उम्र ढलने से पहले ही अब वो वृधाश्रम में होती है

जिन बच्चों की खातिर वो न रात रात भर सोती थी
उनकी गलती पर डांट के खुद जो रात रात भर रोती थी
कल भी उनमे ही खुद को पाए आज भी खुद को पाती है
कल भी माँ कहलायी थी वो आज भी माँ कहलाती है

जिन कांधो पर अक्सर वो बेवाक ही हक दिखलाते थे
चढ़ कर सवारी करने में जो बार बार इठलाते थे
आज उन्ही कंधो का बोझ उठाने में कतराते है
जीवन भर बोझ उठाया जिसने..उस पिता को बोझ बतलाते है

अपने अश्को को उम्रभर जो दरकिनार करती रही
जाने क्या खता थी उन आँखों की.. जो उमर भर बरसती रहीं
जीवन भर पूंजी मानी जिसको अपना सहारा कहते है
उमर ढल जाने पर उन्हें ही उनके बच्चे बोझ समझते है

हम जब भी रोते थे, वो साथ हमारे रोते थे
थी जब भी जरुरत उनकी हमें, वो साथ हमारे होते थे
वो आज भी छुप छुप रोते है ना रात रात भर सोते है
हम साथ उन्हें चाहे ना रखे, वो साथ हमारे होते है

जीवन की धूप में जल कर भी बच्चो को छाव दे जाते है ,
जो लड़ कर जीवन जी सके इस काबिल उन्हें बनाते है
फिर भी.. माँ-बाप के अन्दर ही कोई कमी जरुर है
तभी तो वृधाश्रम में वो.. रहने को मजबूर है

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